चार की परिभाषा

बचपन से आज तक एक समस्या ने उलझा के रखा है,
सुनते आये हमेशा की फलाना काम करोगे तो चार लोग क्या कहेंगे?
आज तक समझ आया नहीं की कौन हैं ये चार लोग, कहाँ से आते हैं,
क्यों हमारे भेड़चाल समाज में इतना डर फैलते हैं.

चकाचौंध वाली एक सड़क पे चलने पे हो या,
अकेले अँधेरी गलियों में फिरनें का सोचा हो कभी,
हर राह बस अलग अलग चौराहों पे आके थम सी गयी,
के फिर लगा के शायद चार लोग से पूछ ही लेना पड़ेगा रास्ता अभी.

अब जब चौराहों पे रास्ता समझते चारों खाने चित्त होके ,भटकने का एहसास हुआ,
तब सोचा की कहाँ गए वो चार लोग और उनकी वो ‘यह करलो, आगे तो ऐश है वाली’ दुआ.
चंचल मन को तब यह कहके समझाया,
ज़िन्दगी का सार तो सरलता है , न की कोई मोह माया.

सुना था कभी की चार दिन की चांदनी है,फिर अँधेरी रात,
चार का ये फेर तो लेकिन चार दिन की ज़िंदगानी के बाद भी करता है फरियाद,
चार लोगो के चार कंधो के लालच में, सब सपने अपने ताक पर रख जाता है हर कोई,
बस समझ पाता नहीं तो ये की चार के चक्कर में क्या झूठ है और क्या सच्चाई.

उपरोक्त चार छंदों पे चार पंक्तिया बस और,
चार के चक्कर में न पड़के अगर कर लेते थोड़ा सुविचार,
मंज़िल पे अपनी पाँव पसार लेते आखिरकार,
फिर क्या चार लोग, जानने वाले बन जाते कई हज़ार.

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