खौफ और खाइशें

ज़िन्दगी के सफर में, मंज़िलों की तलाश में,

हम हर किस्म का अनुभव बनाते चलते आएं हैं,

अभावों के एवज में ख्वाहिशो को चकमा देते बस कुछ दस कदम बढ़ाएं हैं,
पीछे अब जब नज़र पलट के देखा की क्या खोया इन अरमानों को छोड़ के,
एक अलग ही एहसास समझ में आया ॥

कभी जिनको ख्वाहिशें समझा था, वो तो दरअसल एक समझौता थे,
फितरत ऐसी पाल ली थी की दिखावो के पीछे भाग रहे थे,
अब जब कुछ एहसास हुआ ऐसा की किंकर्तव्यविमूढ़ हो उठे,
जिन्हे मंज़िल समझ बढ़ रहे थे ख्वाहिशों की,
वो तो हार के खौफ के एवज में बन गयी थीं ॥

जब गौर किया तो लगा के बचपन से अब तक मंसूबे तो कुछ अलग करने के थे,
कभी पायलट, कभी साइंटिस्ट तो कभी अफसर बनने के थे,
ये कहा चार लोग के डर से प्रैक्टिकल होकर उन अरमानो को खौफ की चादर में लपेट कर छुपा लिया,
के अब सोचूं तो लगता है, ऐसे ख़ौफ़ज़दा होके कौनसा सोने का महल बना लिया ॥

अथक प्रयासों की जब थकान उतरी तो एक बात ज़ेहन को समझ आयी,
यहाँ प्रयासों की तो सिर्फ सराहना होनी है,असल पूछ तो परिणामो की है
बस अब तो ज़माने से इतनी सी है दुहाई,
की ज़माने के खौफ की लगाई बंदिशों से ज़िन्दगी की ख्वाहिशों कही न हो जाये अंतिम विदाई ॥

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